अतिरिक्त >> शेष यात्रा शेष यात्राउषा प्रियंवदा
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शेष यात्रा...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
अनु प्रणव के अपने फैसले का शिकार हुई, वरना वैसा घर, वैसा वर न तो उसके सपनों में था, न सामर्थ्य में। गली-मोहल्लोंवाले कस्बाई परिवार से निकलकर वह लड़की अचानक अमेरिका जा बसी- डॉ. प्रणवकुमार की परिणीता बनकर। सब कुछ जैसे पलक झपकते बदल गया-घर-परिवेश, रहन-सहन, खान-पान। अनु ने बड़ी मुश्किल से अपने को सँभाला और प्रणव की आकांक्षाओं, रुचियों के अनुरूप ढाल लिया। दिन-दिन डूबती चली गई प्यार की गहराइयों में। लेकिन शीघ्र ही उसे लगने लगा कि वह वहाँ अकेली है। प्रणव की तो छाया तक उन गहराइयों में नहीं। वह तो मात्र तैराक है-भावमयी लहरों को रौंदकर प्रसन्न होनेवाला एक महत्त्वाकांक्षी और अस्थिर पुरुष।
ठगी गई अनु अपनी सुन्दरता, अपने संस्कार और सहज विश्वासी मन से। लेकिन आत्महत्या वह नहीं करेगी। टूट-बिखरकर भी जोड़ने की कोशिश करेगी स्वयं को, क्योंकि दलित-आश्रित रहना ही नारी-जीवन का यथार्थ नहीं है। यथार्थ है उसकी निजता और स्वावलम्बन।
सुपरिचित कथाकार उषा प्रियम्वदा की अनु वस्तुतः नारी-मन की समस्त कोमलताओं के बावजूद उसके जागते स्वाभिमान और कठोर जीवन-संघर्ष का प्रतीक है, जिसे इस उपन्यास में गहरी आत्मीयता से उकेरा गया है। उच्च-मध्यवर्गीय प्रवासी भारतीय समाज यहाँ अपने तमाम अन्तर्विरोधों, व्यामोहों और कुंठाओं के साथ मौजूद है। अनु, प्रणव, दिव्या और दीपांकर जैसे पात्रों का लेखिका ने जिस गहन अन्तरंगता से चित्रण किया है, उससे वे पाठकीय अनुभव का अविस्मरणीय अंग बन जाते हैं।
अनु ने अपने को प्रणव की कसी पकड़ में घिर जाने दिया। प्रणव के होंठ क्रूर थे। वह एक हिंसक आक्रोश में अनु को झकझोर रहा था, प्यार में नहीं। अनु ने उसे दूर ठेलना चाहा। वह प्रणव, जो देर तक उसे सहलाता, दुलराता रहता था, इस वक्त कहाँ खो गया था ! रह गया था एक पुरुष मात्र, जिसका अव्यक्त रोष और ऐंठती हुई ताकत वह महसूस कर रही थी, पर जिसका कारण जानने में वह असमर्थ थी। वह देर तक कुचली, टूटी, चुकी हुई पड़ी रही। प्रणव ने उठकर गिलास में शराब डाली और खुली खिड़की के आगे जाकर खड़ा हो गया। ठंडी हवा कमरे में घुस आई और अनु का अंग-अंग एकबारगी दुखने लगा।
ठगी गई अनु अपनी सुन्दरता, अपने संस्कार और सहज विश्वासी मन से। लेकिन आत्महत्या वह नहीं करेगी। टूट-बिखरकर भी जोड़ने की कोशिश करेगी स्वयं को, क्योंकि दलित-आश्रित रहना ही नारी-जीवन का यथार्थ नहीं है। यथार्थ है उसकी निजता और स्वावलम्बन।
सुपरिचित कथाकार उषा प्रियम्वदा की अनु वस्तुतः नारी-मन की समस्त कोमलताओं के बावजूद उसके जागते स्वाभिमान और कठोर जीवन-संघर्ष का प्रतीक है, जिसे इस उपन्यास में गहरी आत्मीयता से उकेरा गया है। उच्च-मध्यवर्गीय प्रवासी भारतीय समाज यहाँ अपने तमाम अन्तर्विरोधों, व्यामोहों और कुंठाओं के साथ मौजूद है। अनु, प्रणव, दिव्या और दीपांकर जैसे पात्रों का लेखिका ने जिस गहन अन्तरंगता से चित्रण किया है, उससे वे पाठकीय अनुभव का अविस्मरणीय अंग बन जाते हैं।
अनु ने अपने को प्रणव की कसी पकड़ में घिर जाने दिया। प्रणव के होंठ क्रूर थे। वह एक हिंसक आक्रोश में अनु को झकझोर रहा था, प्यार में नहीं। अनु ने उसे दूर ठेलना चाहा। वह प्रणव, जो देर तक उसे सहलाता, दुलराता रहता था, इस वक्त कहाँ खो गया था ! रह गया था एक पुरुष मात्र, जिसका अव्यक्त रोष और ऐंठती हुई ताकत वह महसूस कर रही थी, पर जिसका कारण जानने में वह असमर्थ थी। वह देर तक कुचली, टूटी, चुकी हुई पड़ी रही। प्रणव ने उठकर गिलास में शराब डाली और खुली खिड़की के आगे जाकर खड़ा हो गया। ठंडी हवा कमरे में घुस आई और अनु का अंग-अंग एकबारगी दुखने लगा।
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